रविवार, 30 सितंबर 2012

"न तुम ,तुम हो ,न मैं ,मैं हूँ "




आत्मा-परमात्मा का मिलन , प्रेमी -प्रेमिका का मिलन ,चाँद- चकोर का मिलन की पराकाष्टा की अनुभूति।


तुम चाँद हो मैं चकोर हूँ
न जाने .....
कबसे निहार रहा हूँ।
तन्मयता से भूल जाता हूँ
मैं क्या देख रहा हूँ।
चित्त में भ्रम होता है  कभी
कि मैं "तुम " हूँ  या
  तुम "मैं "?
कौन हूँ मैं ? कौन हो तुम ?
बार बार ढूंढता  हूँ तुम्हे
बेहोश हो आवेग में ,
"न तुम ,तुम हो ,
न मैं ,मैं हूँ "
पाता हूँ ,
जब आ जाता हूँ होश में।
एक विन्दु ......
एक सीमा ......
परितृप्ति की पराकाष्ठा ....
जिसके  आगे विलीन होती है
अनन्त इच्छाएं और
अपनी आस्था ।



कालीपद "प्रसाद"
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बुधवार, 19 सितंबर 2012

भाव और शब्द

कोमल,मुलायम भाव के धनी,
                           चुनकर शब्द सागर से मोती दो चार ,
भाव-धागों में पिरीते क्रम से, और
                           बनकर तैयार होता है मोती-हार।

उन्माद लहरें डराते सबको,
                             खड़े हैं जो सागर तट में ,
साहसी , सूरबीर, लहर चीरकर,
                             चुन लाते हैं मोती, सागर तल से।

मैंने देखा कुछ बिखरे मोती,
                             पड़े हैं मेरे मन के भाव सागर में ,
किस धागे में पिराऊं उनको,
                             पड़ गया मैं इसी सोच में।

कभी भाव मिले तो शब्द नहीं,
                             कभी शब्द मिले तो भाव नहीं ,
शब्द - भाव में कुछ मेल हो सकता है ,
                              पर पूर्ण मिलाप  आसान  नहीं।

माना कि शब्द में शक्ति अनत है ,
                              पर भाव के आगे वह लाचार है,
हर नया भाव ,विचार के लिये ,
                               करना पड़ता है नया शब्द का संचार है।

ह्रदय वीणा में उठती कम्पन करती है ,
                               उद्वेलित और चंचल मन प्राण ,
 बलवती ,वेगवान  भावना बहने लगती है कलम से ,
                                छोड़ जाती है कागज पर छाप, शब्द रूप में।

भाव जब चरम सीमा में हो ,
                            नहीं करती इंतजार कागज कलम का ,
आह !!!!!! वाह  !!!!!! के रूप में गूंज उठती है ,
                            आवाज बनके धड़कन दिल का।

आवाज भी शब्द का अन्य रूप है ,
                             गूंजती है सदा , सर्वत्र सूक्ष्मरूप में,
भाव भी सूक्ष्म है,  रहती है  मन के  आँगन में ,
                           भाव ,शब्द  एक हो जाता है मिलकर ब्रह्मनाद में।


कालीपद "प्रसाद "
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