सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

शब्द और ईश्वर !!!



            हर शब्द की उत्पत्ति इन्सान ने किसी विशेष अर्थ /अनुभव /एहसास इत्यादि व्यक्त करने के लिए किया है इसीलिए शब्द शक्ति सिमित है ,ईश्वर को इन शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता क्योंकि ईश्वर अनंत है, असीमित है l यही कारण है आजतक सभी धर्मशास्त्र ईश्वर का सही स्वरुप को व्यक्त करने में असमर्थ रहे है क्योंकि .कोई भी धर्म शास्त्र पूर्ण नहीं है जबकि ईश्वर पूर्ण हैंl
             मानवीय अनुभितियाँ भी अनंत हैं ,इसका आयाम भी अनंत है अत : मानव की हर अनुभूति को शब्द व्यक्त नहीं कर सकता| गुड मीठा है ,शक्कर मीठा है ,शहद मीठा है, पर हर मिठास अलग अलग है ,बहुत सूक्ष्म अंतर है , उस अंतर को निश्चित रूप से बताने वाला कोई शब्द नहीं है |उसीप्रकार कोई शब्द भी ईश्वर को ठीक ठीक परिभाषित नहीं कर पाता या यूँ कहे कोई शब्द ईश्वर तक पहुँच नहीं पाता | सब शब्द ईश्वर के आसपास घूमते हैं पर ईश्वर तक पहुँच नहीं पाते| इसीलिए इंसान भी ईश्वर को जान नहीं पाया ! जिस दिन ईश्वर तह पहुँचने वाला शब्द की उत्पत्ति होगी उसी दिन इंसान को ईश्वर मिल जायेंगे !

    Every word is  created by man to express some specific meaning/experience/feelings/perception/realization,hence power of words is limited .With these words GOD can not be described/defined/reached because GOD is eternal,boundless,infinite,measureless.
With these limited meaning of words all religious books are written, that is why these books are unable to describe/define GOD's form and HIS existence. These books are imperfect and GOD is PERFECT.
        Human perceptions are unlimited/infinite .Every perception can not be expressed by existing words, for example sugar is sweet and honey is also sweet but there is very minute difference in their sweetness.There is no word to describe that difference.Exactly the same way word-power can not exactly define or describe GOD.It revolve round GOD, can not reach GOD. God is beyond word power. The day man is able to create the word to define/reach GOD,Man will reach GODNESS.

कालीपद "प्रसाद "
©सर्वाधिकार सुरक्षित

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

शिशु



                    
चित्र गूगल से साभार !
छोटा सुदर्शन अवोध शिशु
माँ के गोद में लेटा निश्छल शिशु
कभी मुस्कुराता है
कभी जोरजोर से रोता है
कभी ऊँगली मुहँ में डालता है
कहता है मानो ,मुहँ ही ब्रह्माण्ड है l
कभी जीभ निकालकर
दुनियाँ वालों को चिढाता है ,
कभी किसी बात पर हँसता है
कभी गंभीर एकटक निहारता है ,
कभी जोरसे चीखकर अपनी
नाराजगी का इज़हार करता है l
उसकी ख़ुशी हो या गम
आ ..आ ..ओ ..ओ .वो.. की ध्वनि
उसके शब्दकोष का प्रथम शब्द
मानव शब्दकोष की जननी l
भूख लगती है तो
मुख खोलकर दिखाता है ,
माँ ना समझे तो
रोने लगता है l
दूध पी कर सो जाता है दुनियाँ को भूलकर
किन्तु फिर उठता है दुगुना ताजा होकर l
ज्यादा देर सोना उसे पसंद नहीं
सुस्त बैठना भी उसे रास आता नहीं
उसे तो खड़ा होना है
अपने पैरों पर नाचना है
खुद खुश होना है
औरो को भी खुश करना है l
उसका निष्पाप निश्छल अलाप
धो देता हैं मनुज के मन के पाप
करता है दूर कलुष, सब मनस्ताप l  
तन मन हो जाता है पवित्र ,शिशु संग
कोरा ,निर्मल और निष्कलंक l

रचना : कालीपद “प्रसाद “
सर्वाधिकार सुरक्षित